Sunday, November 16, 2014

Grow Young..

Grow young - seems like such a senior citizen kind post ! But no .. this is a lesson I want to remember always. Because I read somewhere - If you think you are a grown-up already, you think you cant grow anymore, So be  child ..always.

Well this post is supposed to be the feeling of growing young - Not that I am too old, but once you cross the third decade of age, you feel you should act a little more mature - but this is about defying the same feeling.
My friend who is a Engineering college professor once mentioned - Teaching to this 18-20 aged kids keeps me young, their thoughts are fresh and different in each batch, I am very much kept up to date on how the generation thinks and hence I can gauge the generation gaps and understand people more.
I am currently having the same feeling. I go for lunch with a kid who is around 18-19. But she helps me understand her thoughts, aspirations, her idea of relationships, life and also makes me loosen up a bit and enjoy the lunch time. I feel I am letting go of my fears, learning new things and living it a little. Sometimes, you need just that !
Just few days back, we played a prank on a unsuspecting new colleague - as we did not want to mess up with office politics when we met a ex-colleague. And it was real  good fun. I probably wouldnt have done it, if I did not have the young company.
So yes, it refreshes me .. a lot !

But the key is being observant of their thoughts and empathize with it - not brush it off thinking its immature.. 'cause that's the attitude that results in generation gap.. Don't we know by our experience with some of our elders ?

Tuesday, November 11, 2014

Krishna-Radha meet in Swarg..

Came across this wonderful piece of work.. Not sure it's a poem or a prose..

स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दुसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण ,
प्रसन्नचित सी राधा...

कृष्ण सकपकाए, राधा मुस्काई

इससे पहले कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल उठी "कैसे हो द्वारकाधीश ?"

जो राधा उन्हें
कान्हा कान्हा
कह के बुलाती थी

उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन
कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया
फिर भी किसी तरह अपने आप को
संभाल लिया

.....और बोले राधा से
मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो

सच कहूँ राधा जब जब भी
तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी

बोली राधा ,
मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे
जो तुम याद आते

इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे

प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?
कुछ कडवे सच ,प्रश्न सुन पाओ तो
सुनाऊ?

कभी सोचा इस तरक्की में तुम
कितने पिछड़ गए

यमुना के मीठे पानी
से जिंदगी शुरू की
और समुन्द्र के खारे पानी तक
पहुच गए ?


एक ऊँगली पर चलने वाले
सुदर्शन चक्र
पर भरोसा कर लिया
और दसों उँगलियों पर चलने वाली
बांसुरी को भूल गए ?

कान्हा जब तुम
प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली
गोवर्धन पर्वत
उठाकर लोगों को
विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के
काम आने लगी

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ
कान्हा होते तो
तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता

युद्ध में और प्रेम
में यही तो फर्क होता है

युद्ध में आप मिटाकर
जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर
जीतते हैं

कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया

सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था
जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था

आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे

आज भी धरती पर जाकर देखो
अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को

ढूंढते रह जाओगे

हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही
खड़े नजर आओगे

आज भी मै मानती हूँ
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश. पर नहीं
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं

गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है
पर आज भी लोग उसके समापन पर
" राधे राधे" करते है

Lot of good lines in this are very touching..
I will try to translate the one I felt as the best .
Radha on her love for Krishna..
I never remembered you or never shed any tears for you..
To remember, I had to forget.. Which I never could..
And was worried that you would flow out with tears so never shed them too..


There are lot more questions that Radha raises to Krishna on the way he dealt with his life and how he went far from love.. and in the end says, the People on earth now worship the Lover Krishna and not the other roles he performed in his life.

My take: Its a beautiful piece of literature ( I came to know later that the author/poet is Sharad Joshi). Krishna was a common man when her was at Gokul and was with Radha.. When he entered Mathura and challenged the King, he stopped being a commoner and then had to lead his life more as a strategist and had to make decisions for masses at large. He was a romantic at heart, but that does not make a good strategist and hence he changed.. If we dont like change in a person after a few years - that does not mean the person will not or should not change.. Its just that our expectations are wrong.
Lot of more thoughts on this..but some other time.